पिछले कुछ महीनों से उत्तराखंड में आपदा प्रभावित क्षेत्रों में काम करते हुए आज "शिक्षा के अधिकार " पर बने फोरम की सालाना बैठक मे मुझे भाग लेने का मौका मिला। बैठक मे सरकार और सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधी शामिल थे जहाँ "शिक्षा का अधिकार कानून 2009 " से शिक्षा की गुणवत्ता में होने वाले बदलाव पर पुरे जोर-शोर से चर्चा हुई। पुरे दिन भर चली इस बैठक मे जो सारांश निकल के आयी वो ये था कि एक तरफ सरकारी मुलाज़िम कह रहे थे कि " मित्रों रास्ता सुगम और दुर्गम है जहाँ दोनो मे गम है " और दुसरी तरफ सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि कह रहे थे "मित्रों जहाँ निराशा है वही आशा है और दोनो मे आशा है".
पुरे दिन की इस बैठक में मैंने कुछ पंक्तियाँ अपनी व्यथा के रूप मे उजागर कर दी…।
कुछ मुस्कुराते चेहरे
कुछ चस्मे की आड़ में पलके सटाये चेहरे
बार-बार घड़ी की सुइयों को निहारते कुछ चेहरे
सब शामिल थे गम्भीर समस्या की चर्चा मे,
बात थी देश के भविष्य की बुनियाद सवारने मे,
हर अल्फाज मे विधा का मन्दिर और पुजारी थे
हर तर्क मे खंडहर होती मंदिर की दिवारे थी।
सुगम - दुर्गम के बीच से सरकती वार्ता में
सब लगे पडे थे एक दुसरे की कमियों को दिखाने में
क्या दिला पाएंगे उन बच्चों के अधिकारों को
जो खुद भुल चुके है अपने बचपन की पाठशाला को।
बात-बात पर ताली बजाते चेहरे,
कुछ जोर - जोर से "शिक्षा एक समान" के नारे लगाते चेहरे,
समाज की बदलती तस्वीर को दिखाते नुमाइंदे
लगा सब भुल गये बच्चों के मुस्कुराते चेहरे।
शशि कान्त सिंह
Very true... and touching...Keep it up Shashi....
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति .....
ReplyDeleteThank you very much for your appreciation
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