बहुत
दिन बाद आज लेखनी पकड़ी है
सोच
रहा था क्या लिखा जाय
क्यूँ
ना आज कविदिल की बात की जाय
बहुत
हो गया कॉलेज, डंडा पत्थर, हरा-लाल; बर्फ -गिरता पारा
चालों
आज थोड़ा सफर कविशब्द संग की जाय
इस
सर्दी में गरमाहट आग से नहीं शब्दों जाल से की जाय
हम
लिखते है
हाँ
हम लिखते है
कमरे
के किसी कोने में
रात
के अँधेरे में
दुर
कही पीपल की छाव में
कुछ
कर गुजरने की चाह में
हाँ
हम लिखते हैं.
नजरों
में ज़माने के थोड़े से खिसके, थोड़े पागल कहलाते हैं
समझाना
मुश्किल होता है कि हम तो खुद जल उन्हें जिलाते है
हाँ
हम लिखते है
हर
घड़ी शब्दों से जाल बुनते है
जब
कभी दो आंखे मिल चार होते है
उनके
होंठो पर शब्द हमारे है
जब
भी कोई आँखे किसी घुंघुराले बालों में उलझते है
उसे
सुलझनों को शब्द हमारे है
जब
भी कोई टुटा दिल, पैमाने से छलकता है
तो
उसका सहारा बन, हर जाम में हम है
तभी
तो हम लिखते है
हाँ
हम लिखते है
अरे
दोस्तों
जब भी
किसी माँ का दुलारा
सोता
नहीं है
तब माँ
की हर लोरी में हम है
डीजे
में थिरकते हर पावं संग
थिरकते
भी हमी है
हर
क्रांति में, हर भ्रांति में, हरेक आरजू में तो हर बगावत में
हर
नजर में, हरेक नज्म में, हर गली के मुहाने पर
हर
मशाल के साथ तो हर ख्याल के साथ
मौजूदगी
हमारी है
तभी
तो हम लिखते है
हाँ
हम लिखते है
श्रीमती
जी हमारी इसे अपनी सौत मानने लगी है
मेरी
तस्वीर को देख कर बर्तन खटकाने लगी है
कहती
है जाओ ले मरों अपनी शब्दजाल में
मै
हसता हुआ सोचता हूँ
ये
तो मेरा वजूद है जिसे संजोये मै जिन्दा हूँ
मगर
इस जाल की हर कड़ी से तो आप ही जुड़े हो
मै
जिन्दा हूँ क्योकि आप साथ खड़ी हो
मै
लिख पाता हूँ क्योकि मेरे हर शब्द में बस आप हो
बस
आप ही हो
तभी
मै लिखता हूँ
तभी मै एक कवी हूँ और
कविशब्द संग जीता हूँ.
Shashi Kant Singh