Saturday, May 16, 2020

तेरा एहसास...


साथ हो अगर तो साथ हो
नहीं भी हो तो जी लेंगे हम
सिलवटें आएँगी मगर
कपडे की तरह संवर जायेंगे हम

रिश्ता गहरा है,
दुर होने से और निखर जायेगा
उन यादों के सहारे ही अपनी दुनिया बसाएगा.

दफन नहीं होता... ये आस दफन नहीं होता
न जाने क्यूँ, तेरा इंतज़ार खत्म नहीं होता
यादों का लिबास मेरे जिस्म से लिपटता रहा
मेरे संग बिस्तर पर करवटे बदलता रहा
नींद उन यादों से रात भर लड़ता रहा 

नींद क्या आएगी जबतक तेरी याद जिन्दा है
मुझमे तो तेरी आंखिरी वो मुलाकात जिन्दा है
तेरी आरजू में मेरे पास हर दिन और रात जिन्दा है
ना जाने क्यूँ तेरे पास बस सवाल जिन्दा है
खत्म नहीं होता...तेरा अहसास इन फिजाओं में दफन नहीं होता
न जाने क्यूँ तेरा इंतेज़ार खत्म नहीं होता

आस अगर छोड़ा तो बिखर जाऊंगा
टूटे पत्ते की तरह कही खो जाऊंगा
टूट तो उस दिन ही गया था जब तुझसे जुदा हुआ
जिन्दा हु क्योंकि मेरे साथ तुम्हारी याद बाकी है
मेरे हर रोम में आज भी तेरा इंतेजार बाकी है
दफन नहीं होता... ये आस दफन नहीं होता
न जाने क्यूँ, तेरा इंतज़ार खत्म नहीं होता


©Shashi

Tuesday, January 28, 2020

कविशब्द संग कवि दिल


बहुत दिन बाद आज लेखनी पकड़ी है
सोच रहा था क्या लिखा जाय
क्यूँ ना आज कविदिल की बात की जाय
बहुत हो गया कॉलेज, डंडा पत्थर, हरा-लाल; बर्फ -गिरता पारा
चालों आज थोड़ा सफर कविशब्द संग की जाय
इस सर्दी में गरमाहट आग से नहीं शब्दों जाल से की जाय

हम लिखते है
हाँ हम लिखते है
कमरे के किसी कोने में
रात के अँधेरे में
दुर कही पीपल की छाव में
कुछ कर गुजरने की चाह में
हाँ हम लिखते हैं.

नजरों में ज़माने के थोड़े से खिसके, थोड़े पागल कहलाते हैं
समझाना मुश्किल होता है कि हम तो खुद जल उन्हें जिलाते है
हाँ हम लिखते है
हर घड़ी शब्दों से जाल बुनते है

जब कभी दो आंखे मिल चार होते है
उनके होंठो पर शब्द हमारे है
जब भी कोई आँखे किसी घुंघुराले बालों में उलझते है
उसे सुलझनों को शब्द हमारे है
जब भी कोई टुटा दिल, पैमाने से छलकता है
तो उसका सहारा बन, हर जाम में हम है
तभी तो हम लिखते है
हाँ हम लिखते है

अरे दोस्तों
जब भी किसी माँ का दुलारा
सोता नहीं है
तब माँ की हर लोरी में हम है
डीजे में थिरकते हर पावं संग

थिरकते भी हमी है
हर क्रांति में, हर भ्रांति में, हरेक आरजू में तो हर बगावत में
हर नजर में, हरेक नज्म में, हर गली के मुहाने पर
हर मशाल के साथ तो हर ख्याल के साथ
मौजूदगी हमारी है
तभी तो हम लिखते है
हाँ हम लिखते है

श्रीमती जी हमारी इसे अपनी सौत मानने लगी है
मेरी तस्वीर को देख कर बर्तन खटकाने लगी है
कहती है जाओ ले मरों अपनी शब्दजाल में
मै हसता हुआ सोचता हूँ
ये तो मेरा वजूद है जिसे संजोये मै जिन्दा हूँ
मगर इस जाल की हर कड़ी से तो आप ही जुड़े हो
मै जिन्दा हूँ क्योकि आप साथ खड़ी हो
मै लिख पाता हूँ क्योकि मेरे हर शब्द में बस आप हो
बस आप ही हो
तभी मै लिखता हूँ
तभी मै एक कवी हूँ और कविशब्द संग जीता हूँ.


Shashi Kant Singh


Friday, October 11, 2019

गोवा की वो सुबह.......



दिन 20 सितम्बर 2016, गोवा की वो सुबह, जहाँ बीते दो दिनों में ये तो देखा था की लहरों के किनारे शाम को ये शहर कितना रंगीन और खुशमिजाज होता है. मन के किसी कोने में यहाँ की सुबह को भी देखने की तम्मना थी. यही सुबह के करीब साढ़े चार बजे रहे होंगे जब मै अपनी किराये पर ली हुई स्कूटी उठाई और पहुच गया लहरों के किनारे.


चांदनी रात...दुर दुर तक कोई नहीं........लहरों की इतनी तेज आवाज.....अरे वाह इसी की तो चाह थी मुझे...... 

बस मै दौड़ते हुए किनारे पर लगी एक टूटी पड़ी हुई नाव पर जा बैठा. थोड़ी देर बस बंद आँखों से लहरों को महसूस किया.

आँखे खोली तो क्या सुन्दर सा नजारा था,
एक तरफ से हल्की-हल्की लालिमा छा रही थी,
तो दूसरी ओर सुहानी चांदनी रात 
सागर से अपनी बाहें छुड़ा रही थी,

एक तरफ नया सवेरा था
नए दिन के उजाले की शुरुआत थी,
वही दूजी तरफ रात भर के एकसाथ रहे  
इस चांदनी का लहरों से बिछड़ने का दर्द था

लगा अचानक ये लहरे कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी
थोड़ी ऊपर को आ गई थी
ये कहते हुए की...
थोड़ी देर और रुक जाओ

जब तक चांदनी कुछ कह पाती.......
लालिमा उसे अपने आगोश में ले चुकी थी
अब बस लहरे ही लहरे थी..... हर तरफ बस.....लहरे ही लहरे थी

©Shashi Kant Singh

Thursday, June 21, 2018

बारिश संग बदलता नाता...

हल्की हल्की, रिमझिम बारिश वाली सुबह
बूंद धरा के मिलन का संगीत
कानों में पायल बजा रही
सोंधी सी खुशबु सांसों से मिल मदहोश कर रही
तकिये को बाँहों से दबाये, ये ख्वाबों की दुनिया मुझे खीच रही  
बेपरवाह; बेफिक्र चादर की सिलवटे
घड़ी की टिक टिक में दिन रविवार
पहर दर पहर बीत रही

बचपन में
कभी ख़ुशी ख़ुशी भीगते थे
इन बूंदों में नाचते थे
कागज की कश्ती के साथ
अपने बेफिजूल अरमानों को लहराते थे

शाम हुई और ये झमाझम
ख़ुशी अब चिंता की लकीरों में बदलने लगी
रात में ये झमाझम की मधुरता
कानों को चुभने लगी
फ़िक्र ये नहीं कि क्या हो रहा है
चिंता कल के ऑफिस पहुचने की सताने लगी

मेरी अगली सुबह
झमाझम की मधुर संगीत
‘उफ्फ्फ्फ़ ये बारिश भी ना’ में बदलने लगी
न जाने कब
ये बारिश से बचपन की दोस्ती
बड़प्पन संग खोने लगी

©Shashi

Saturday, September 2, 2017

ये कहाँ आ गए हम......

बहुत दिन बाद अपने गांव पर था,
सामने सभी जाने पहचाने चेहरे थे...
मंदिर के पास आज भी,
वही छोटा सा मेरा घर भी था,

वो घर जहाँ कभी बहुत कुछ ना होकर भी सबकुछ था,
हर सुख में, दुःख में
अपनों का साथ था,
जहाँ बारिश की बुँदे
ठीक बिस्तर पर टपकते हुए हमें जगाती थी.
तेज हवाओं के साथ मिल कर हमें भिगोती थी
हमसब मिलकर उस आशियाने को बसाते थे,
बारिश के जख्मों को हँस - हँस  कर भुलाते थे.

समय बदला, हमारी जरूरते बदलने लगी,
ना जाने कब, वो आशियाना
हमारी प्रतिष्ठा को खटकने लगी.

हम दौड़ पड़े
गावं से दूर एक शहर की तरफ
एक नये आशियाने से,
अपनी प्रतिष्ठा को सवारने की तरफ,
अब ना ही हमें,
प्रतिष्ठा के खटकने का डर था,
ना ही बारिश के जगाने का भय था.

ये बारिश, जो हमें कभी बहुत करीब से जगाती थी,
हाथ से हाथ मिलाती थी,
आज बस खिड़की से ही लौट जाती है
शायद कुछ गहरा अपनापन था हमसे
जो आज भी कुछ बूंदों को हमारी खिड़की पर छोड़ जाती है.

दुर हम बारिश से क्या हुए,
सारे अपने पीछे छुट गये,
आशियाँ बसाने की चाह में,
हम अपनों को भुल गये.

आज हर तरफ एक अजीब सा सन्नाटा है,
भीड़ में भी हर कोई खामोश और अकेला है,
हमारा नया आशियाना भी खुबसूरत सा है,
मगर दिल के करीब आज भी,
वही टुटा फुटा आशियाना है.

जहाँ कुछ भी नहीं था आपसी प्यार के सिवा,
आज सबकुछ है आपसी प्यार के बिना,


Shashi
(जिन्दगी के कुछ अनुभव साझा करने की कोशिश.....)

Wednesday, June 8, 2016

तकरार-ऐ-जिंदगी

देर शाम सोते है, सुबह जल्दी जगते  है,
ऐ जिंदगी तुझसे हर रोज लड़ते है,
कभी तु मुझपे भारी पड़ती,
कभी मैं तुझपे काफी पड़ता।।

तु मुझमे जीती हो, मैं तुझसे जिन्दा हूँ,
बस यही सोचता रहता हूँ।
तारीखे बदलती जाती है
और मैं बस तेरे संग नाचता जाता हूँ।

हर रोज सोचता हुँ ,
आज बेटे संग थोड़ा खेलूंगा
सोचता हूँ,
आज पापा संग बैठ कर चाय पिऊंगा,
शाम को फुरसत में
माँ से लम्बी बाते करूँगा
बस सोचता हूँ, सोचता हूँ, सोचता ही रहता हूँ।

ऐ मेरी जिंदगी, तुझसे गुस्सा होता हूँ,
तुझपे चिल्लाता भी हूँ,
फिर भी ना जाने क्युँ,
तेरे लिये ही भागता रहता हूँ।
तुझे तो जीत के भी हारता हूँ
और हार के भी जीता हूँ।

काश !!
तु आज भी छोटी होती रे
हम पापा की अंगुली पकड़कर चला करते.
माँ हमें प्यार करती,
दादी हमें परियों के देश घुमाती

ना मैं तुझसे तकरार करता
और ना ही तु मुझे अपने इशारों पर नचाया करती ।

Shashi Kant Singh


Thursday, January 28, 2016

बिखरते रिश्ते

कुछ समझने चला हुँ 
कुछ जानने चला हुँ  
दुनिया मुझे फिर से अपनी लगे 
ये ख्वाब संजोये चला हुँ 

ये दुनिया तो पहले ऐसी न थी 
पैसों के पीछे भागती यहाँ हरएक बस्ती न थी
हम हर रोज आगे बढ़ते रहे,
अपने पीछे छुटते रहे,
सब पाने की चाह में
हमारे घरौंदे दिन ब दिन सिमटते रहे,

मतलबी इंसानियत हुई,
मतलबी सारे रिश्ते हुए,
ऐ दुनिया तेरी पनाह में,
इंसान भी आज जानवर हुए. 

चाहत की दिवारे मोटे होने लगे,  
रिश्ते कब्रो में दफन होने लगे, 
पहचान बनाने के लिए हम लड़ते रहे   
अपनों में पहचान खोने लगे.  

आज रिश्तो की चादर को सिलने चला  हू 
बिखरते रिश्तों की डोर को जोड़ने चला हुँ,
तू मुझे फिर से वही प्यारी लगे,
ऐ  मेरी दुनिया तुझे फिर से संजोने चला हू। 

तेरा एहसास...

साथ हो अगर तो साथ हो नहीं भी हो तो जी लेंगे हम सिलवटें आएँगी मगर कपडे की तरह संवर जायेंगे हम रिश्ता गहरा है , दुर होने से ...