दिन 20 सितम्बर 2016, गोवा की वो सुबह, जहाँ बीते
दो दिनों में ये तो देखा था की लहरों के किनारे शाम को ये शहर कितना रंगीन और
खुशमिजाज होता है. मन के किसी कोने में यहाँ की सुबह को भी देखने की तम्मना थी. यही सुबह
के करीब साढ़े चार बजे रहे होंगे जब मै अपनी किराये पर ली हुई स्कूटी उठाई और पहुच गया
लहरों के किनारे.
चांदनी रात...दुर दुर तक कोई नहीं........लहरों की इतनी तेज आवाज.....अरे वाह इसी की तो चाह थी मुझे......
बस मै दौड़ते हुए किनारे पर लगी एक टूटी पड़ी हुई नाव पर जा बैठा. थोड़ी देर बस बंद आँखों से लहरों को महसूस किया.
आँखे
खोली तो क्या सुन्दर सा नजारा था,
एक
तरफ से हल्की-हल्की लालिमा छा रही थी,
तो
दूसरी ओर सुहानी चांदनी रात
सागर से अपनी बाहें छुड़ा रही थी,
सागर से अपनी बाहें छुड़ा रही थी,
एक
तरफ नया सवेरा था
नए
दिन के उजाले की शुरुआत थी,
वही दूजी तरफ रात भर के एकसाथ रहे
इस
चांदनी का लहरों से बिछड़ने का दर्द था
लगा अचानक
ये लहरे कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी
थोड़ी
ऊपर को आ गई थी
ये
कहते हुए की...
थोड़ी
देर और रुक जाओ
जब तक चांदनी कुछ कह पाती.......
लालिमा
उसे अपने आगोश में ले चुकी थी
अब
बस लहरे ही लहरे थी..... हर तरफ बस.....लहरे ही लहरे थी
©Shashi Kant Singh