Monday, October 13, 2014

आम आदमी ....!!

हा मैं एक आम आदमी हुँ
आजादी के इन 60 सालो बाद भी
इतनी तो समझ बची है मेरे मे
जो एहसास कराये
कि मै एक आम आदमी था
और आज भी हूँ।

मुझे पहचाना आपने
मै तब भी वही था जब अपना देश गुलाम था
सब के साथ मिलों पैदल चला
लाठियाँ खायी, गोलियाँ  खायी,
और आपके साथ साथ उस दिन का गवाह बना
ना अपनी पहचान पाने के लिये आरजु करी
ना  ही पुरस्कार पाने कि लालसा दिखाई
क्योकि मुझे पता था कि
मै एक आम आदमी हुँ।

मुझे कही खोजने कि जरुरत नहीं है
मै तो हमेशा आँखों के सामने हुँ
कभी राशन कि दुकान पर कतार में
कभी रेलवे स्टेशन पर कतार में
कभी धक्के खाता बसो मे
तो कभी बिमारी से लड़ता हुआ लाचार पड़ा अस्पताल मे
क्या करू मै जो आम आदमी हुँ

ये हमारी मजबुरी नही हमारी तकदीर है
हमारे माथे कि लकीर है
हाथों की लकीरें तो अब बची नहीं
सब पसीने बेचने मे मिटती रही
हमारे घरों में जलने वाले चूल्हो मे तेल
उनकी तिजोरियो से रिस - रिस कर टपकती रही

लाठिया तब भी खाता था
लाठिया आज भी खाता हूँ
गालियाँ तब भी सुनता था
गालियाँ आज भी सुनता हुँ
गोलियाँ तब भी मिलती थी
गोलियाँ आज भी मिलती है
फर्क बस इतना है कि
तब मै एक भारतीय था
आज मै बस एक आम आदमी हुँ।


Wednesday, March 5, 2014

व्यथा....!!

पिछले कुछ महीनों से उत्तराखंड में आपदा प्रभावित क्षेत्रों में काम करते हुए आज "शिक्षा के अधिकार " पर बने फोरम की सालाना बैठक मे मुझे भाग लेने का मौका मिला। बैठक मे सरकार और सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधी शामिल थे जहाँ  "शिक्षा का अधिकार कानून 2009 " से शिक्षा की गुणवत्ता में होने वाले बदलाव पर पुरे जोर-शोर से चर्चा हुई। पुरे दिन भर चली इस बैठक मे जो सारांश निकल के आयी वो ये था कि एक तरफ सरकारी मुलाज़िम कह रहे थे कि " मित्रों रास्ता सुगम और दुर्गम है जहाँ दोनो मे गम है " और दुसरी तरफ सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि कह रहे थे "मित्रों जहाँ निराशा है वही आशा है और दोनो मे आशा है". 

पुरे दिन की इस बैठक में मैंने कुछ पंक्तियाँ अपनी व्यथा के रूप मे उजागर कर दी…। 

कुछ चिंतित चेहरे
कुछ मुस्कुराते चेहरे
कुछ चस्मे की आड़ में पलके सटाये चेहरे
बार-बार घड़ी की सुइयों को निहारते कुछ चेहरे

सब शामिल थे गम्भीर समस्या की चर्चा मे,
बात थी देश के भविष्य की बुनियाद सवारने मे,
हर अल्फाज मे विधा का मन्दिर और पुजारी थे
हर तर्क मे खंडहर होती मंदिर की दिवारे थी।

सुगम - दुर्गम के बीच से सरकती वार्ता में
सब लगे पडे थे एक दुसरे की कमियों को दिखाने में
क्या दिला पाएंगे उन बच्चों के अधिकारों को
जो खुद भुल चुके है अपने बचपन की पाठशाला को।

बात-बात पर ताली बजाते चेहरे,
कुछ जोर - जोर से "शिक्षा एक समान" के नारे लगाते चेहरे,
समाज की बदलती तस्वीर को दिखाते नुमाइंदे
लगा सब भुल गये बच्चों के मुस्कुराते चेहरे।

शशि कान्त सिंह

तेरा एहसास...

साथ हो अगर तो साथ हो नहीं भी हो तो जी लेंगे हम सिलवटें आएँगी मगर कपडे की तरह संवर जायेंगे हम रिश्ता गहरा है , दुर होने से ...