थामे रिश्ते की डोर, मेरा ये जीवन शुरू हुआ,
रिश्तों की अंगुली पकड़, मै धरा पर चलना शुरू किया,
रिश्तों के लिये, रिश्तों से जुड़ता चला गया,
रिश्तों के खातिर, मैं रिश्ता निभाना शुरू किया।
रिश्तों की भीड़ में, तलाशा एक परछायी को,
इतराया गर्व से खुद पर, पाकर उस रिश्तें से प्यार को,
लगा मिल गई है मंजिल मुझे, इस जीवन के मजधार में,
ऐसा लगने लगा, लोग जलने लगे है मेरे इस रिश्ते के नाम से।
समय के साथ, रिश्तों के मायने बदलते चले गये,
मेरी परछायी को वो अँधेरा बन, ढकते चले गये,
मुझे पता न चला, कब मेरी परछायी पीछे छुट गई,
मै तो वही खड़ा रहा, मगर वो रिश्ता मुझसे रूठ गई।
अगली सुबह,
उसी मोड़ पर मै, रिश्तों के अरमानो को निभाता रहा,
उन रिश्तों के बीच, अपनी उस परछायी को तलाशता रहा,
फिर से वो शाम आई,
मगर वो रिश्ता मुझे नजर ना आई....
वो रिश्ता मुझे नजर ना आई।
Shashi Kant Singh
truely awesome............seriously fabulous
ReplyDeleteआप ने तो रिश्ते को बखूबी से निभाया पर वोही बेवफा निकली|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिब्यक्ति|
rishton per ek behad khoobsurat kavita.
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