Thursday, January 28, 2016

बिखरते रिश्ते

कुछ समझने चला हुँ 
कुछ जानने चला हुँ  
दुनिया मुझे फिर से अपनी लगे 
ये ख्वाब संजोये चला हुँ 

ये दुनिया तो पहले ऐसी न थी 
पैसों के पीछे भागती यहाँ हरएक बस्ती न थी
हम हर रोज आगे बढ़ते रहे,
अपने पीछे छुटते रहे,
सब पाने की चाह में
हमारे घरौंदे दिन ब दिन सिमटते रहे,

मतलबी इंसानियत हुई,
मतलबी सारे रिश्ते हुए,
ऐ दुनिया तेरी पनाह में,
इंसान भी आज जानवर हुए. 

चाहत की दिवारे मोटे होने लगे,  
रिश्ते कब्रो में दफन होने लगे, 
पहचान बनाने के लिए हम लड़ते रहे   
अपनों में पहचान खोने लगे.  

आज रिश्तो की चादर को सिलने चला  हू 
बिखरते रिश्तों की डोर को जोड़ने चला हुँ,
तू मुझे फिर से वही प्यारी लगे,
ऐ  मेरी दुनिया तुझे फिर से संजोने चला हू। 

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