मै अकेला हूँ
उन फिसलन भरी राहों पर
जहाँ लोग हाथों को थामते है अपने मतलब के लिये
पैर भी खीचते है अपने मतलब के लिये
कहने को तो सब अपने है
लेकिन हकीकत में सब सपने है, सब सपने है।
मै अकेला हूँ
उसी पगडण्डी पर जहाँ
मिलते है सब नाकाब ओढ़े हुए
साथ चलते है परछाई छुपाये हुए
लगे है एक - दुसरे को हराने में
जहाँ हसतें भी है दुसरे को रुलाते हुए
गर्मजोशी में गले लगाते है लोग
चादर में खंजर छुपाये हुए
बीच राहों में बाँहों मे भरते जिसे
पौ फटते ही अनजान बनते है नजरे चुराते हुए
मै अकेला हूँ
उन्ही राहों पर
जो कभी घाटी , कभी पहाडो से गुजरती है
कभी बारिश में भीगती है
कभी सूरज की गर्मी मे तपती है
कभी - कभी सामना होता है बर्फीली हवाओं से
तब याद कर चाँद को खुद मे सिमटती है
उन यादों की पोटली के सहारे-सहारे
मै अकेले - अकेले सरकता हूँ
वो सामने कब्रिस्तान की चारदीवारी नजर आती है
अपने उस आखिरी मुकाम की तरफ
अकेला, सिर्फ अकेला ही आगे बढ़ता हूँ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteगहन अर्थ लिए..मन को उद्वेलित करती....
अनु
आपके शब्दों के जाल से,आज की हकीकत ...बहुत खूब |
ReplyDeleteसादर |