Tuesday, December 27, 2011

फासले इंसानियत के

 कही आँखों में चमक, तो कही फिकी है चेहरे की मुस्कान,
कही कुछ करने की चाहत, तो कही गुम है दिल के अरमान,
हवा भी सहम सी जाती है,
तय करती है जब ये रास्ता वीरान.

एक तरफ दौड़ है एक तरफ बेबसी
एक तरफ है मंजिले जहाँ हर तरफ है ख़ुशी,
दूजा लाचार है, जिसके सपने भी अपने नहीं,

पौ फटते ही रोटी को बच्चे चिल्लाते रहे,
और वो अपने बेबसी पर आंसू सुखाते रहे.
कुदरत भी इन्ही पर सितम ढाते रहे,
और लोग इनकी लाशो पर भी सिक्के भुनाते रहे.
इसे हैवानियत कहे या पुरानी दस्तूर 
जब इन्सान ही इन फासलों को बढ़ाते रहे 

खादी कुरता हो या कोई ओहदा बड़ा,
सारे बढ़ते आंकड़ो को गिनाते रहे,
इनसे रहमत की आशा लिए वो,
इनके शोषण को भी अपनी किस्मत समझते रहे.
उस तरफ इमारते खडी होती रही,
इधर झुग्गी में दिए जलते रहे,
इन्हें इन्सान ही कहे या खुदा का फरिस्ता 
जो खुद के मेहनत से उनकी इमारत जगमगाते रहे,

और वो बस अपनी टूटी जिंदगी की गाड़ी को खीचते हुए
उन की खिड़की को दूर से चुपचाप निहारते रहे.

Shashi kant Singh

2 comments:

  1. वाह क्या बात तो मिल ही गये आपके शब्दों के खजाने
    बहुत बहुत खूब जनाब

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