Sunday, April 24, 2011

बोया पेड़ बबुल का

"गुरु ब्रम्हा, गुरु बिष्णु, गुरु देवो महेश्वर
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मयी श्री गुरुवे नमः"
इतिहास के पन्नो में गुरु की उपाधि सर्व श्रेस्ठ हैं। गुरु वो है जो एक अच्छे समाज का निर्माण करता है। गुरु वो कुम्हार है जो समाज रूपी घड़े को एक आकर/रूप प्रदान करता है। हमारे शास्त्रों में ऐसे प्रमाण मिलते है कि गुरु की ललाट हमेशा ज्ञान से चमकती रहती थी, उनके आश्रम ऐसे शांत जगह पर होते थे जहाँ विधा की सरिता बहती थी और शिष्य भी संत की तरह रहते थे और शिक्षा ग्रहण करते थे। चाहे वो एक राजा का राज कुमार हो या एक प्रजा के आँखों का तारा। गुरु भी सभी को ज्ञान सामान रूप से बाटते थे। उनका बस एक ही सोच होता था - "ज्ञान बाटना" क्योकि वो जानते थे कि शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को तरक्की के पथ पर अग्रसर करता है।
इतिहास गवाह है कि बिहार हमेशा से विद्वानों को पैदा करने की धरती रही है जहाँ राजेंद्र प्रसाद, महान गणितज्ञ वशिस्ठ नारायण तथा तथागत अवतार तुलसी जैसे विद्वान पैदा हुए। मगर आज दिन-ब-दिन शिक्षा का गिरता स्तर और शिक्षा पर होती जा रही गन्दी राजनीती, राज्य में मौजूद युवा शक्ति और आने वाली पीढ़ियों के लिये बेहद खतरनाक बनती जा रही है।
अगर आज के परिवेश की बात करे तो विधालय ऐसे नहीं रहे जहाँ सिर्फ विधा की देवी माँ सरस्वती का वास होता है, गुरु वो नहीं रहे जिनका मकसद केवल ज्ञान बाटना होता है और शिष्य भी वैसे नहीं रहे जिनका मकसद केवल ज्ञान हासिल करना होता है। आज तो विधालय केवल भोजनालय बन कर रह गये है, गुरु ऐसे 'शिक्षा मित्र' में परिवर्तित हो गये है जो शिक्षा का मित्र ना होकर सरकार के मित्र हो गये है जो केवल कभी जनगणना, तो कभी चुनाव में लगे रहते है, और संयोग से कोई बच जाता है तो वो स्कुल के भवन निर्माण का ठेकेदार बना दिया जाता है। शिष्य की क्या बात करनी जब स्कुल में गुरु ही न हो मगर ये जरुर है कि शिष्य अपने समय से खाने का थाली के साथ खाने के समय हाजिर हो जाता है। ये बात अलग है कि उस खाने को खा कर बहुत शिष्य बीमार भी पड़ जाते है। भले स्कुल जाये या ना जाये मगर जब साईकिल और पोशाक के पैसे बाटें जाते है तब अपने हक़ को जताने पास के शहर में भी पहुच जाते है.
कही - कही हालात ये हैं कि शिष्यों की वर्तमान संख्या से तीन - चार गुना अधिक शिष्यों का नाम स्कुल की कुंजी में दर्ज मिलता है, जिसको देख कर सरकार अपनी पीठ थप-थापती है कि स्कुल में शिष्यों की संख्या में इजाफा हुआ है और उसी को देख उन स्कुलो में राशन उपलब्ध कराती है और गुरु जिसको समाज पहले पूजता था उसी को भ्रष्ट बनने के लिये प्रेरित करती है।
वो गुरु भी भ्रष्ट क्यों ना हो, जब वे खुद उन पंचायत मुखियों के रहमो करम पर चयनित हुए है जिनमे अधिकांशतः को एक प्रपत्र पढ़कर समझने कि कूबत नहीं है मगर कहा पर और किस काम में गाढ़ी कमाई है उसको अच्छी तरह से समझ जाते है। अचम्भा तो तब होता है जब महान जनमत से बनाई गई ये सरकार उनके हाथो से चयनित गुरुओं के बल पर एक मजबूत और शिक्षित युवा शक्ति की कल्पना करती है।
रोचक अनुभव:
अभी हाल में ही खगड़िया जिले के एक स्कुल के कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। संयोग कुछ ऐसा रहा की मै पूर्व निर्धारित काम से उस गावं में पहले ही पहुच गया। सोचा चलो थोडा स्कुल भी घूम लू। पता चला की अभी परीक्षा चल रही है। मै बस ऐसे ही एक कमरे में चला गया और जो देखा उसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी।
सामने ब्लैक बोर्ड पर सारे प्रश्नों के उत्तर लिख कर गुरु जी गायब थे और शिष्य उसे उतारने में लगे थे । कुछ तो उसे और अच्छा से लिखने के लिये अपने पास मौजूद सामग्री का सहारा भी ले रहे थे। ये बात अलग है की मुझे देख कर शिष्य लोग उन सामग्री को छुपाने लगे थे। अभी मै अन्दर घूम ही रहा था कि बाहर कुछ शोरगुल और थाली के खनखनाने की आवाज सुनाई दी। और मै बाहर आ गया। बाहर का नजारा दिल दहलाने वाला था। जहाँ एक तरफ एक गुरूजी छड़ी के सहारे उन छोटे - छोटे शिष्यों को कतार में लगा रहे थे तो दूसरी तरफ दरवाजे से उन थाली/कटोरों में थोड़ी-थोड़ी खिचड़ी डाली जा रही थी। इधर सामने बरगद के पेड़ के निचे किसी-किसी कटोरे में २-३ नन्हे शिष्य बैठ कर खा रहे है और सामने बन रहे भवन के लिये मौजूद पानी की पाइप से पानी पिने के लिये झगड़ रहे है।
सहसा दिमाग में बी बी सी के उस खबर की याद आ गई जब बिल गेट्स ने एक ऐसे ही स्कुल का दौरा किया था और सारे शिष्यों के साफ-सुथरे पोशाक तथा उनके हाथो में चमचमाती थाली को देख कर उनके मुहँ से "अदभुत" निकला था। मन तो किया कि उन्हें यहाँ भी भ्रमण करने का न्योता दे दू जिससे इन शिष्यों को थोड़ी बहुत रहत मिले। मगर सोचा कि कितनी जगह घुमाऊंगा।
अगर देखे तो इसके जिम्मेदार तो हम खुद भी है। ये सरकार तो हमने ही बनायीं है ना। ये तो हमारे द्वारा चुने गये सेवको की कारलिला है। जो दिखाने को तो एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगते है और दूसरी तरफ एक के द्वारा लगाये गये काटों से भरे पौधे को पीछे से पानी भी देते है।
उनके खुद के तो बच्चे किसी विदेशी स्कुल में अच्छी शिक्षा हासिल कर रहे होते है। नुकसान तो एक गरीब के उस बच्चे का होता है जिसके माता पिता दो जून की रोटी की जुगाड़ में परेशान होते है और मौका मिलने पर अपने बच्चे की पढाई बंद कर काम पर ले कर चल देते है। मगर अचम्भा तब लगता है जब सरकार हकीकत से परे, बस आंकड़ो में उलझ कर इसे विकास की रफ्तार का नाम देती है।
और आम जनता हर सालअपने मन को कोसती रहती है कि मैंने क्यों बोया पेड़ बाबुल का......
Shashi kant Singh

1 comment:

तेरा एहसास...

साथ हो अगर तो साथ हो नहीं भी हो तो जी लेंगे हम सिलवटें आएँगी मगर कपडे की तरह संवर जायेंगे हम रिश्ता गहरा है , दुर होने से ...